..सारंगढ़-बिलाईगढ़।* जिले की सड़कों पर बिखरा खून महज एक हादसे का परिणाम नहीं है, यह उस “कागजी तानाशाही” का सबूत है जो आदिवासी विकास विभाग के वातानुकूलित कमरों में बैठकर रची गई थी।
35 वर्षीय युवा अधीक्षक अमित पटेल की मौत ने चीख-चीख कर यह साबित कर दिया है कि विभाग में आदेश का पालन करना, “मौत के वारंट” पर हस्ताक्षर करने जैसा हो गया है।
*तुगलकी फरमान: एक कंधे पर तीन पहाड़ों का बोझ -* सहायक आयुक्त के जिस आदेश (दिनांक 01 अगस्त 2025) को “पदोन्नति” कहा जा रहा है, वह असल में एक “सजा” थी।*जरा विभाग का गणित देखिये-** अमित पटेल की मूल पदस्थापना प्री-मैट्रिक छात्रावास बार थी। उन्हें कागज पर आश्रम सांकरा भेजा गया। क्या इतना काफी नहीं था? नहीं! उन्हें छात्रावास बोंदा का भी प्रभार थमा दिया गया।> सवाल यह है कि एक अकेला इंसान एक ही वक्त में तीन जगहों पर कैसे उपस्थित हो सकता है? क्या विभाग ने अमित को ‘रोबोट’ समझ लिया था जो बिना थके, बिना रुके मीलों का सफर तय करेगा?
*भ्रष्टाचार की ‘अंदरूनी डील’ और सड़क पर मौत :* विभागीय सूत्रों ने जो खुलासा किया है, वह रोंगटे खड़े करने वाला है। दबी जुबान में चर्चा है कि यह पूरा खेल “सुविधा शुल्क” और “मिठाई के डिब्बों” का है।*रसूखदारों की मौज :* जिन्होंने लाखों की “चढ़ावा राशि” दी, उन्हें पदोन्नति के बावजूद घर के पास वाले छात्रावासों में ‘अटैच’ कर दिया गया।
* ईमानदारी की सजा : अमित पटेल जैसे गिने-चुने अधीक्षकों ने पैसे का खेल खेलने के बजाय आदेश का पालन किया, तीन-तीन हॉस्टलों की जिम्मेदारी संभाली और बदले में उन्हें क्या मिला? एक दर्दनाक मौत!
*माइलस्टोन उखड़ा या सिस्टम की नींव?.-* बरमकेला-चंद्रपुर मार्ग के मौहापाली मोड़ पर जिस जगह अमित की बाइक टकराई, वहां का माइलस्टोन उखड़ गया। यह उखड़ा हुआ पत्थर बता रहा है कि एक थका हुआ कर्मचारी, जो दिन भर तीन हॉस्टलों की भागदौड़ से चूर था, किस मानसिक तनाव और गति में घर लौट रहा होगा।सबसे शर्मनाक पहलू यह है कि 1 अगस्त को पोस्टिंग मिलने के बाद भी उन्हें सांकरा में ‘शासकीय आवास’ तक मुहैया नहीं कराया गया। अगर उन्हें वहां आवास मिला होता, तो शायद आज वे जिंदा होते। उन्हें रोज रात को जान जोखिम में डालकर लंबी दूरी तय नहीं करनी पड़ती।
*प्रश्न, जिनका जवाब सहायक आयुक्त को देना होगा :** तीन प्रभार क्यों? किस नियम के तहत एक अधीक्षक को तीन-तीन छात्रावासों का प्रभार लादा गया? क्या जिले में अधीक्षकों का इतना अकाल है?
* भेदभाव क्यों? जांच की जाए कि 1 अगस्त के आदेश के बाद कितने लोगों ने अपनी नई जगह जॉइन की और कितने लोग ‘सेटिंग’ करके अपनी पुरानी कुर्सियों पर जमे रहे?* जिम्मेदारी किसकी? अमित पटेल के अनाथ बच्चे और विधवा पत्नी के आंसुओं का हिसाब क्या विभाग अपनी ‘अनुकंपा नियुक्ति’ की फाइलों से चुका पाएगा?
*यह घटना महज एक एक्सीडेंट नहीं, बल्कि “इंस्टीट्यूशनल मर्डर” (संस्थागत हत्या) है। अगर अब भी प्रशासन ने आंखें नहीं खोलीं और इस “ट्रांसफर-पोस्टिंग उद्योग” की निष्पक्ष जांच नहीं कराई, तो अमित पटेल की मौत आखिरी नहीं होगी। विभाग की यह लापरवाही आने वाले समय में कई और बेगुनाह कर्मचारियों की बलि लेगी।*
