रायगढ़। जिले के तमनार में क्या संविधान की पांचवीं अनुसूची में दर्ज ‘ग्राम सभा’ की शक्तियां केवल कागजी शेर बनकर रह गई हैं?
गारे पेलमा सेक्टर-1 में आज जो दृश्य उभरकर सामने आया है, वह न केवल प्रशासनिक कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिह्न लगाता है, बल्कि यह भी सोचने पर मजबूर करता है कि क्या ‘सहमति’ का निर्माण बंद कमरों में किया जा रहा है?

14 गांवों के ग्रामीणों का आक्रोश और सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा ‘समर्थन’ का वीडियो, एक गहरे विरोधाभास और संभावित संवैधानिक उल्लंघन की कहानी कह रहा है।
*प्रशासनिक पारदर्शिता पर सवाल : “स्थान बदला, विश्वास टूटा” -* लोकतंत्र में जनसुनवाई का अर्थ होता है -जनता की अदालत। लेकिन गारे पेलमा के ग्रामीणों द्वारा लगाए गए पोस्टर बेहद गंभीर आरोप लगा रहे हैं।

पोस्टर के अनुसार, 08.12.2025 को आयोजित जनसुनवाई ‘फर्जी’ थी क्योंकि इसे पूर्व निर्धारित स्थल से हटाकर अन्यत्र आयोजित किया गया।यह मात्र स्थान का परिवर्तन नहीं, बल्कि PESA कानून (1996) की मूल भावना का उल्लंघन प्रतीत होता है। कानून स्पष्ट करता है कि अनुसूचित क्षेत्रों में किसी भी परियोजना के लिए ग्राम सभा की “पूर्व और सूचित सहमति” अनिवार्य है।
*गंभीर प्रश्न :* यदि 14 गांवों के नागरिक विरोध में खड़े हैं, तो प्रशासन ने किन परिस्थितियों में जनसुनवाई को सफल मान लिया?
ग्रामीणों की यह मांग कि जिम्मेदार अधिकारियों और कंपनी कर्मचारियों पर FIR दर्ज हो और न्यायिक जांच कराई जाए, प्रशासन की विश्वसनीयता पर गहरा आघात है।*वायरल वीडियो का विश्लेषण :
* ‘स्वाभाविक स्वर’ या ‘रटी-रटाई स्क्रिप्ट‘? इस जनांदोलन के बीच एक वीडियो सामने आया है, जो विरोधाभास की पराकाष्ठा है। जहाँ हजारों ग्रामीण “फर्जी जनसुनवाई” के विरोध में लामबंद हैं, वहीं इस वीडियो में कुछ स्थानीय नागरिक और जनप्रतिनिधि कतारबद्ध होकर एक ही वाक्य दोहरा रहे हैं- “मैं गारे पेलमा सेक्टर-1 और जिंदल का समर्थन करता/करती हूँ”।
*इस वीडियो ने नैतिकता और सामाजिक समरसता पर तीखे सवाल खड़े किए हैं :* * यांत्रिक अभिव्यक्ति : वीडियो में दिखाई देने वाले वक्ताओं (जिनमें महिलाएं और स्थानीय सरपंच स्तर के प्रतिनिधि शामिल हैं) की भाव-भंगिमा और शब्दों का चयन इतना यांत्रिक है कि यह किसी ‘स्क्रिप्ट’ का हिस्सा प्रतीत होता है।
* सामाजिक विखंडन : वीडियो पर लिखा कैप्शन – “गांव द्रोही गांव को मिटाने चल दिए” – यह संकेत देता है कि इस परियोजना ने आदिवासी समाज के भीतर गहरी खाई पैदा कर दी है।
एक ही गांव के लोग अब एक-दूसरे को ‘शत्रु’ की दृष्टि से देख रहे हैं, जो किसी भी सभ्य समाज के लिए चिंताजनक है।
* दमन का आरोप : “निलंबन और मुकदमे” ग्रामीणों के पोस्टर में एक और भयावह पहलू उजागर हुआ है- आवाज उठाने वालों के खिलाफ दर्ज प्रकरण और कर्मचारियों का निलंबन।क्या सहमति बनाने का नया तरीका ‘भय’ है? ग्रामीणों द्वारा मुकदमों की वापसी और बहाली की मांग यह सिद्ध करती है कि संवाद के बजाय ‘शक्ति’ का प्रयोग किया जा रहा है, जो PESA कानून के लोकतांत्रिक मूल्यों के सर्वथा विपरीत है।
*औपचारिकता बनाम न्याय :*गारे पेलमा का घटनाक्रम यह स्पष्ट करता है कि ‘कानूनी औपचारिकताएं’ (जैसे जनसुनवाई का आयोजन) पूरी कर लेना और ‘वास्तविक न्याय’ प्रदान करना दो अलग बातें हैं।
जब 14 गांवों का समूह एक स्वर में कह रहा हो कि हमारे साथ छल हुआ है, तो चंद मिनटों का ‘समर्थन वीडियो’ उस सामूहिक चीत्कार को नहीं दबा सकता। प्रशासन और सरकार के समक्ष अब यह चुनौती है कि वे कॉरपोरेट हितों को चुनते हैं या संविधान प्रदत्त ग्राम सभा की संप्रभुता को ।
आज गारे पेलमा में केवल कोयला नहीं खोदा जा रहा, बल्कि वहां विश्वास की नींव भी खोदी जा रही है।
